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मुस्कुराती नहीं माँ इस ज़ुदाई पे

खुल के बोल
खुल के बोल
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रोया था वो पहली बार

ज़ुदा होकर अपनी माँ से,

निकलकर गर्भ से अपनी माँ के

चहुँकने लगा था

वो, और चिपका लिया तभी

माँ ने अपने सीने से उसे

जैसे लेना चाहती हो समा

अपने भीतर उसे.



maa aur wo उसके उस ज़ुदाई पर

मुस्कुराती थी माँ

जाने क्यों?

सांसारिकता तब भी थी


पर असर न था

माँ पर उसका कोई.

उसका ग़म ग़म था माँ का

और उसके आँसू थे माँ के आँसू.



माँ के गर्भ से निकला अंश

ज़ुदा होते ही रहा निरंतर

और पहुँचा वहाँ जिसके बारे में

जाता है कहा कि

वो लेती है अपना

उनको, जो आता है रहने वहाँ.



सुना था माँ ने कईयों से

कि वो दिलवालों की जगह है.

माँ मानती थी अफ़वाह इसे

भरोसा था उसे खुद के

अंश पर अपने

लेकिन उस ज़ुदाई पर मुस्कुराने

का दुष्परिणाम तो भोगना ही था उसे.



हुआ वही जिसे ‘सच्चाई’ कहते हैं

प्रतीक्षा में उसके मास पर मास गुजरते गये

लेकिन न आना था उसे

सो न आया वो लौट कर.



ख़्याल आते थे माँ को

कि आयेगा वो लौट कर,

बैठ कर कहेगा अपनी आपबीती

वो उसके लिए बनाते पूड़ियाँ

सुनेगी उसकी हर बात,

लड़ लेगी बाप से उसके

अगर वो उसे जगायेंगे सुबह

या कहेंगे बाल कटवाने छोटे-छोटे.



माँ को पता न था शायद

कि दिल्ली ने दे दिया है

उसे रहने को ठौर

जिसमें देखता है

वो भविष्य अपना.

हो चुका है वो भी

उस दौड़ में

शामिल, जिसके पीछे है

भागती दुनिया सारी.



जिस दौड़ के परिणाम हैं

मात्र दो;

भौतिकता का वरण कर

रिश्ते चलाना

या कि रिश्ते निभाकर

अभावों को भी गले लगाना.



चुना है उसने विकल्प दूसरा

क्योंकि वो भी देता है

रिश्तों पर स्थान अर्थ को

और मानता है कि

ये सकती है टाल सारे अनर्थ को.



सांसारिकता अब भी है

पर विडंबना है देखो कैसी!

इस ज़ुदाई पर चाह कर भी

माँ मुस्कुरा सकती नहीं.

लेकिन हँसता है अंश उसका

उसपर, क्योंकि बहुत कम समय में

जान गया है वो रिश्तों को चलाना.



एक माँ है जो अब तक

जानते हुए भी सब अंजान हैं,

जिसे भरोसा है कि किसी दिन

वो आएगा फिर से

और कहेगा, ‘माँ! बनाकर खिला दे पूड़ियाँ.’




मुकेश कुमार

https://facebook.com/mukeshkj3



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